Eklavya the best archer of Mahabharata : एकलव्य महाभारत का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर।
एकलव्य भारतवर्ष का वो महान योद्धा था जिसे प्रबुद्ध इतिहासकारों ने अंगूठे के दान की महिमा के साथ ही भुला दिया। इस महान धनुर्धारी के धनु कौशल और आधुनिक तीरंदाजी में उसके योगदान को इतिहासकारों ने भुला दिया है। यह महाकाव्य एकलव्य के अनछुए पहलुओं को छूती है, और हमें इस महान धनुर्धर की अनदेखे स्वरूप को दर्शाती है। जब सृष्टि की सारी शक्तियाँ एकलव्य के विरुद्ध थीं। गुरु द्रोण, और कृष्ण सरीखे महाबली महयोद्धा मिलकर उसे रोकने में लगे थे, उसके विरुद्ध थे, तब उसने अपने अदम्य श्रम से, उद्यम से धनुर्विद्या की उत्कृष्ठ कला अर्जित की थी। फिर अचानक एक दिन एकलव्य अपना सर्वोत्तम शस्त्र और स्वअर्जित विद्या गुरूदक्षिणा के रूप में गुरु द्रोण को अर्पित कर देता है- अपने दाहिने हाथ का अँगूठा काटकर गुरु चरणों में समर्पित कर देता है। ये वो समय था जब बिना अँगूठे के धनुष चलाने की कल्पना मात्र भी असम्भव था। उस काल मे एकलव्य पुनः अपने स्व-श्रम से, बिना किसी गुरु के, तीरंदाजी की एक ऐसी कला विकसित करता है जो स्वयं में अद्वितीय थी। कालांतर में एकलव्य की इस धनुकला को आधुनिक विज्ञान भी सर्वश्रेष्ट मान लेता है। आज विश्व के सभी तीरंदाज एकलव्य की इसी कला का प्रयोग अपने तीरंदाजी में करते हैं।
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**महान धनुर्धर एकलव्य के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा था कि – यदि उसका अंगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग, सब मिलकर भी युद्ध में उसे परास्त नहीं कर पाते। अब प्रश्न यह कि – कौन था एकलव्य और बाद में उसका क्या हुआ?
कहानी संक्षेप – एक दिन कौरव-पांडव राजकुमार वन में शिकार के लिए गए। तब एक कुत्ता उनके पीछे चल रहा था जो कि भटककर वहां पहुंच गया जहां एकलव्य द्रोण प्रतिमा के समक्ष अभ्यास कर रहा था। एकलव्य को देख जब कुत्ता भौंकने लगा तो अपने अभ्यास में व्यवधान जान एकलव्य ने अपने अस्त्रलाघव का परिचय देते हुए कुत्ते के मुंह में एक साथ सात बाण मारे। जब बाण सहित वह कुत्ता कौरव-पांडवों के पास पहुंचा तो सारे राजकुमार आश्चर्यचकित रह गए। सब राजकुमार जब एकलव्य के पास पहुंचे तो उसने अपने आप को द्रोण का शिष्य बताया। यह बात स्वयं को गुरु द्रोण का सर्वश्रेष्ठ शिष्य मानने वाले अर्जुन को बहुत खली। उसने विनम्रतापूर्वक इसका उलाहना एकांत में द्रोण को दिया। तब द्रोण अर्जुन को साथ लेकर उसके पास आए। गुरु को साक्षात सम्मुख देख एकलव्य उनके चरणों में झुक गया। तब अर्जुन के हित के लिए वचनबद्ध द्रोण ने गुरुदक्षिणा में उससे दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा और उसने प्रसन्नमुख, उदारचित्त, बगै़र विचारे अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को काटकर द्रोण को अर्पित कर दिया।
इससे द्रोण भी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे संकेत मात्र से बताया कि किस प्रकार तर्जनी और मध्यमा के संयोग से बाण पकड़कर धनुष की प्रत्यंचा खींची जा सकती है। इस तरह द्रोण ने एकलव्य को ‘अगले स्तर’ की धनुर्विद्या उत्तराधिकार के रूप में सौंपी।
एकलव्य की साधना – एकलव्य ने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुन : दक्षता प्राप्त कर ली। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने लगा। वह जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर कृष्ण की सेना का सफाया करने लगा। सेना में हाहाकार मचने के बाद श्रीकृष्ण जब स्वयं उससे लड़ाई करने पहुंचे, तो उसे सिर्फ चार अंगुलियों के सहारे धनुष-बाण चलाते हुए देखा, तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। चूंकि वह मानवों के नरसंहार में लगा हुआ था, इसलिए कृष्ण को एकलव्य का संहार करना पड़ा।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।
कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।
एकलव्य : प्रारंभ में एकलव्य का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। पांच वर्ष की आयु में एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।
बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक एकलव्य की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम ‘एकलव्य’ रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।
एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं।
एकलव्य के जीवन से सीखने योग्य बातें
* रास्ते कभी बंद नहीं होते।
*कुदरत हर बच्चे में कुछ विशेष टैलेंट देता है उसे निखारने पर घ्यान दें।
*गलत रास्ते पर चलने पर आपका जीवन अल्पायु की ओर बढ़ जाता है।
*लगातार अभ्यास से असंभव लगने वाले लक्ष्य को भी प्राप्त किया जा सकता है।
*अकेले सीखने से आप अपने आप कुदरती कुछ अलग ज्ञान अर्जित कर सकते हैं।
Acha baat hai
Nice message